''जब तानसेन की तानाशाही को एक बच्चे ने खत्म किया''

प्रस्तुत कहानी सम्राट अकबर के सुप्रसिद्ध रागी तानसेन द्वारा निर्धारित किए गए राग-विद्या के नियम पर आधारित है। उसकी बराबरी करने वाला हर व्यक्ति मौत के घाट उतार दिया जाता था। ऐसी स्थिति में एक छोटे से बालक ने अपने पिता को इसी कारणवश बचपन में खो दिया था। प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ बैजू बावरा होकर नवयौवन के उस पड़ाव तक आ पहुँचा, जब उसका सामना तानसेन से प्रतियोगिता के रूप में हुआ। बैजू बावरा की सम्मोहिनी आवाज़ ने सबके हृदय उद्वेलित कर दिए और तानसेन को अपने चरणों में गिरने को विवश कर दिया।


प्रभात का समय था, आसमान से बरसती हुई जीवन की किरणें संसार में नवीन जीवन का संचार कर रही थीं। बारह घंटों के लगातार संग्राम के बाद प्रकाश ने अँधेरे पर विजय प्राप्त की थी। इस खुशी में फूल झूम रहे थे और पक्षी मीठे गीत गा रहे थे। पेड़ों की शाखाएँ खेलती थीं और पत्ते तालियाँ बजाते थे। चारों तरफ़ प्रकाश नाचता था। चारों तरफ़ खुशियाँ झूमती थीं। चारों तरफ़ गीत गूँजते थे।

इतने में साधुओं की एक मंडली शहर के अंदर दाखिल हुई। ये लोग जो मस्तमौला, ईश्वरभक्त और हरि भजन के मतवाले थे, संसार से बंधन तोड़ चुके थे, और अपने मन को मार चुके थे। उनका ख़याल था, मन बड़ा चंचल है, अगर इसे काम न हो, तो इधर-उधर भटकने लगता है और अपने स्वामी को विनाश की खाई में गिराकर नष्ट कर डालता है। इसे भक्ति की ज़ंजीरों से जकड़ देना चाहिए; नहीं तो साँप बनकर डसता है और बिच्छू बनकर काटता है। साधू गाते थे-सुमर सुमर भगवान को, मूरख मत खाली छोड़ इस मन को !

जो संसार को त्याग चुके थे, उन्हें सुर-ताल की क्या परवाह थी ? कोई ऊँचे स्वर में गाता था, कोई मुँह में गुनगुनाता था। और लोग क्या कहते हैं, इन्हें इसकी जरा भी चिंता न थी। ये अपने राग में मगन थे कि सिपाहियों ने आकर घेर लिया और हथकड़ियाँ पहनाकर अकबर बादशाह के दरबार को ले चले।

यह वह समय था जब हिंदुस्तान में अकबर की तूती बोलती थी और उसके मशहूर रागी तानसेन ने यह कानून बनवा दिया था कि जो आदमी राग-विद्या में उनकी बराबरी न कर सके, वह आगरा की सीमा में गीत न गाए। और जो गाए, उसे मौत की सजा दी जाए। बेचारे वनवासी साधुओं को पता नहीं था, परंतु अज्ञान भी अपराध है। मुकदमा दरबार में पेश हुआ। तानसेन ने राग-विद्या के कुछ प्रश्न किए, किंतु साधु उत्तर में मुँह ताकने लगे। अकबर के होंठ हिले और सबके सब साधु तानसेन की दया पर छोड़ दिए गए। दया निर्बल थी, वह इतना भार सहन न कर सकी। मृत्यु दंड की आज्ञा हुई। केवल एक दस वर्ष का बच्चा छोड़ा गया, "बच्चा है, इसका दोष नहीं। यदि है भी तो क्षमा के योग्य है। "

बच्चा रोता हुआ आगरा के बाज़ारों से निकला और जंगल में जाकर अपनी कुटिया में रोने तड़पने लगा। वह बार-बार पुकारता था, “बाबा! तू कहाँ है? अब कौन मुझे प्यार करेगा? कौन मुझे कहानियाँ सुनाएगा? लोग आगरा की तारीफ़ करते हैं, मगर इसने मुझे तो बरबाद कर दिया। इसने मेरा बाबा छीन लिया और मुझे अनाथ बनाकर छोड़ दिया। बाबा, तू कहा करता था कि संसार में चप्पे-चप्पे पर दलदलें हैं और चप्पे-चप्पे पर काँटों की झाड़ियाँ हैं। यहाँ आदमी पग-पग पर फिसलता है और पग-पग पर काँटों में उलझ जाता है। अब कौन मुझे इन झाड़ियों से बचाएगा? कौन मुझे इन दलदलों से निकालेगा ? कौन मुझे सीधा रास्ता बताएगा? कौन मुझे मेरी मंज़िल का पता देगा ? "


इन्हीं विचारों में डूबा हुआ बच्चा देर तक रोता रहा। इतने में खड़ाऊँ पहने हुए, हाथ में माला लिए हुए, 'राम नाम जपते बाबा हरिदास कुटिया के अंदर आए और बोले, "बैजू बेटा! शांति करो, शांति करो! "

बैजू उठा और हरिदास जी के चरणों से लिपट गया। वह बिलख-बिलखकर रोता था और कहता था, "महाराज, मेरे साथ अन्याय हुआ है। मुझ पर बज्र गिरा है! मेरा संसार उजड़ गया है। मैं क्या करूँ?"

हरिदास बोले, "शांति, शांति !”

बैजू बोला, "महाराज, तानसेन ने मुझे तबाह कर दिया! उसने मेरा संसार सूना कर दिया। "

हरिदास, "शांति, शांति ! "

बैजू ने हरिदास के चरणों से और भी लिपटकर कहा, "महाराज, शांति जा चुकी । अब मुझे बदले की चाह है। अब मुझे प्रतिकार की इच्छा है। "

हरिदास ने फिर कहा, "बेटा! शांति, शांति ! "

बैजू ने करुणा और क्रोध की आँखों से बाबा जी की तरफ़ देखा। उन आँखों में आँसू थे, और आहें थीं, और आग थी। जो काम जुबान नहीं कर सकती, उसे आँखें कर देती हैं, और जो काम आँखें भी नहीं कर सकतीं, उसे आँसू कर देते हैं। बैजू ने ये दो आख़िरी हथियार चलाए और सिर झुका लिया।

हरिदास के धीरज की दीवार आँसुओं की बौछार न सह सकी, और काँपकर गिर गई। उन्होंने बैजू को उठाकर गले से लगाया और कहा, "मैं तुझे वह हथियार दूँगा, जिससे तू अपने पिता की मौत का बदला ले सकेगा।" बैजू हैरान हुआ, बैजू खुश हुआ, बैजू उछल पड़ा। बोला, "बाबा, आपने मुझे खरीद लिया। आपने मुझे बचा लिया। अब मैं आपका सेवक हूँ।"

हरिदास बोले, "मगर इसके लिए तुझें बारह बरस तक तपस्या करनी होगी। कठोर तपस्या । "

बैजू ने कहा, "महाराज, आप बारह बरस कहते हैं, मैं बारह जीवन देने को तैयार हूँ। मैं तपस्या करूँगा, मैं दुख झेलूँगा, मैं मुसीबतें उठाऊँगा। मैं अपने जीवन का एक एक क्षण आपकी भेंट कर दूँगा । मगर क्या इसके बाद मुझे वह हथियार मिल जाएगा, जिससे मैं अपने पिता की मौत का बदला ले सकूँ ? " हरिदास बोले, "हाँ, मिल जाएगा।"

बैजू ने कहा, तो मैं आज से आपका दास हूँ। आप आज्ञा दें, मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करूँगा।" ऊपर की घटना को बारह वर्ष बीत गए। जगत में बहुत से परिवर्तन हो गए। कई बस्तियाँ उजड़ गई। कई वन बस गए। बूढ़े मर गए। जो जवान थे, उनके बाल सफ़ेद हो गए।

आज बैजू बावरा जवान हो चुका था और राग-विद्या में दिन पर दिन आगे बढ़ रहा था। उसके स्वर में जादू भर चुका था और तान में एक आश्चर्यमयी मोहिनी थी। लोग सुनते थे और झूमते थे तथा 'वाह वाह' करते थे। हवा रुक जाती थी। समाँ बँध जाता था।

एक दिन हरिदास ने हँसकर कहा, "वत्स, मेरे पास जो कुछ था, वह मैंने तुझे दे डाला। अब तू पूर्ण गंधर्व हो गया है। अब मेरे पास और कुछ नहीं, जो तुझे दूँ।"

बैजू हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कृतज्ञता का भाव आँसुओं के रूप में बह निकला। चरणों पर सिर रखकर बोला, "महाराज, आपका उपकार जन्मभर सिर से न उतरेगा। "

हरिदास सिर हिलाकर बोले, "यह नहीं बेटा, कुछ और कहो। मैं तुम्हारे मुँह से कुछ और सुनना चाहता हूँ।"

बैजू बोला, "आज्ञा कीजिए! "

हरिदास ने कहा, "पहले प्रतिज्ञा करो। "

बैजू ने बिना सोच-विचार किए कह दिया, "मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि...' 

हरिदास ने वाक्य को पूरा किया, "इस राग विद्या से किसी को हानि न पहुँचाऊँगा।"

बैजू का लहू सूख गया। पैर लड़खड़ाने लगे। सफलता के बाग परे भागते हुए दिखाई दिए। बारह वर्ष की तपस्या पर एक क्षण में पानी फिर गया। प्रतिहिंसा की छुरी हाथ आई, तो गुरु ने प्रतिज्ञा लेकर कुंद कर दी। बैजू ने होंठ काटे, दाँत पीसे और रक्त का घूँट पीकर रह गया। मगर गुरु के सामने उसके मुख से एक शब्द भी न निकला।


कुछ दिन बाद एक सुंदर नवयुवक साधू आगरा के बाज़ारों में गाता हुआ जा रहा था। लोगों ने समझा, इसकी भी मौत आ गई है। वे उठे कि उसे नगर की रीत की सूचना दे दें, मगर निकट पहुँचने से पूर्व ही मुग्ध होकर अपने आपको भूल गए और किसी का साहस न हुआ कि उससे कुछ कहे। दम के दम में यह समाचार नगर में जंगल की आग के समान फैल गया कि एक साधू रागी आया है, जो बाज़ारों में गा रहा है। सिपाहियों ने हथकड़ियाँ सँभालीं और पकड़ने के लिए साधू की ओर दौड़े। परंतु पास आना था कि रंग पलट गया। साधू के मुखमंडल से तेज की किरणें फूट-फूटकर निकल रही थीं, जिनमें जादू था, मोहिनी थी और मुग्ध करने की शक्ति थी। सिपाहियों को न अपनी सुध रहीं, न हथकड़ियों की, न अपने बल की, न अपने कर्तव्य की, न बादशाह की, न बादशाह के हुक्म की। वे आश्चर्य से उसके मुख की ओर देखने लगे, जहाँ सरस्वती का वास था और जहाँ से संगीत की मधुर ध्वनि की धारा बह रही थी। साधू मस्त था, सुननेवाले मस्त थे, ज़मीन आसमान मस्त थे। गाते-गाते साधू धीरे-धीरे चलता जाता था और श्रोताओं का समूह भी धीरे-धीरे चलता जाता था। ऐसे मालूम होता था, जैसे एक समुद्र है, जिसे नवयुवक साधू आवाज़ों की जंजीरों से खींच रहा है और संकेत से अपने साथ-साथ आने की प्रेरणा कर रहा है, और उसकी इच्छा की अवहेलना करने की किसी में हिम्मत नहीं। 

 मुग्ध जन-समुदाय चलता गया, चलता गया, पता नहीं किधर को? एकाएक गाना बंद हो गया। जादू का ताँता टूटा, तो लोगों ने देखा कि वे तानसेन के महल के सामने खड़े हैं। उन्होंने दुख और पश्चाताप से हाथ मले और सोचा, यह हम कहाँ आ गए?" साधू अज्ञान में ही मृत्यु के द्वारा पर आ पहुँचा था। भोली-भाली चिड़िया अपने आप अजगर के मुँह में आ फँसी थी। और, अजगर के दिल में ज़रा भी दया न थी ।

तानसेन बाहर निकला। नागरिक जनता के दल को देखकर वह हैरान हुआ। फिर सब कुछ समझकर नवयुवक से बोला, "तो शायद आप ही के सिर पर मौत सवार है?"

नवयुवक साधु मुसकराया, “जी हाँ, मैं आपके साथ गानविद्या पर चर्चा करना चाहता हूँ।" तानसेन ने बेपरवाही से उत्तर दिया, “बहुत अच्छा! मगर आप नियम जानते हैं न? नियम कड़ा है, और मेरे दिल में दया नहीं है। "

नवयुवक ने कहा, " और मेरे दिल में जीवन का मोह नहीं है। "

इसी समय सिपाहियों को अपनी हथकड़ियों का ध्यान आया। झंकारते हुए आगे बढ़े और नवयुवक साधू के हाथों में हथकड़ियाँ पहना दीं। भक्ति का ताँता टूट गया। श्रद्धा के भाव पकड़े जाने के भय से उड़ गए और लोग इधर-उधर भागने लगे। सिपाही कोड़े बरसाने लगे और लोगों के तितर-बितर हो जाने के बाद नवयुवक साधू को दरबार की ओर ले चले। दरबार की ओर से शर्तें सुनाई गई, "कल प्रातः काल नगर के बाहर वन में तुम दोनों का गानयुद्ध होगा। अगर तुम हार गए, तो तुम्हें मार डालने का तानसेन को पूर्ण अधिकार होगा; और अगर तुमने उसे हरा दिया, तो उसका जीवन तुम्हारे हाथ में होगा।" नवयुवक साधू ने शर्तें मंज़ूर कर लीं और दरबार ने आज्ञा दी कि कल प्रातः काल तक सिपाहियों की रक्षा में रहो। यह नवयुवक साधू बैजू बावरा ही था।

सूरज भगवान की पहली किरण ने आगरा के लोगों को आगरा से बाहर जाते देखा । साधू की प्रार्थना पर सर्वसाधारण को भी उसके जीवन और मृत्यु का तमाशा देखने की आज्ञा दे दी गई। साधू की विद्वता की धाक दूर-दूर तक फैल गई थी। जो कभी अकबर की सवारी देखने को भी घर से बाहर आना पसंद नहीं करते थे, आज वे भी नई पगड़ियाँ बाँधकर बाहर निकल रहे थे।

ऐसा जान पड़ता था कि आज नगर से बाहर वन में नया नगर बस जाने को है- वहाँ जहाँ, कनातें लगी थीं, चाँदनियाँ तनी थीं। जहाँ कुरसियों की कतारें सजी थीं, वहाँ जनता बढ़ रही थी । उद्विग्नता और अधीरता से गानयुद्ध के समय की प्रतीक्षा कर रही थी। बालक को प्रातःकाल मिठाई मिलने की आशा दिलाई जाए, तो वह रात को कई बार उठ उठकर देखता है कि अभी सूर्य निकला है या नहीं। उसके लिए समय रुक जाता है। उसके हाथ से धीरज छूट जाता है। वह व्याकुल हो जाता है।

समय हो गया। लोगों ने आँख उठाकर देखा, अकबर सिंहासन पर था, साथ ही नीचे की तरफ़ तानसेन बैठा था और सामने फ़र्श पर नवयुवक बैजू बावरा दिखाई देता था।

अकबर ने घंटी बजाई और तानसेन ने कुछ सवाल संगीत-विद्या के संबंध में बैजू बावरा से पूछे। बैजू ने उचित उत्तर दिए और लोगों ने हर्ष से तालियाँ पीट दीं। हर मुख से 'जय हो', 'जय हो', बलिहारी, बलिहारी की ध्वनि निकलने लगी।

इसके बाद बैजू बावरा ने सितार हाथ में ली और जब उसके पर्दों को हिलाया, तो जनता ब्रह्मानंद में डूब गई और वृक्षों के पत्ते तक निःशब्द हो गए। वायु रुक गई और सुनने वाले मंत्र-मुग्धवत सुधिहीन हुए सिर हिलाने लगे। बैजू बावरा की अंगुलियाँ सितार पर दौड़ रही थीं। उन तारों पर राग-विद्या निछावर हो रही थी और लोगों के मन उछल रहे थे, झूम रहे थे।

लोगों ने देखा और हैरान होकर रह गए कि कुछ हिरन छलाँगें मारते हुए आए और बैजू बावरा के पास खड़े हो गए। बैजू बावरा सितार बजाता रहा, बजाता रहा, बजाता रहा। वे हिरन सुनते रहें, सुनते रहे, सुनते रहे। हिरन मस्त और बेसुध थे। बैजू बावरा ने सितार हाथ से रख दिया और अपने गले से फूल-मालाएँ उतारकर उन्हें पहना दीं। फूलों के स्पर्श से हिरनों को सुध आई और वे चौकड़ी भरते हुए भागकर गायब हो गए। बैजू ने कहा, "तानसेन, मेरी फूल-मालाएँ यहाँ मँगवा दें, तब मैं जानूँ कि आप राग-विद्या जानते हैं। "

तानसेन सितार हाथ में लेकर अपनी पूर्ण प्रवीणता के साथ बजाने लगा। ऐसी अच्छी सितार, ऐसी एकाग्रता के साथ उसने अपने जीवन भर में कभी न बजाई थी। सितार के साथ वह आप सितार बन गया और पसीना पसीना हो गया। उसको अपने तन की सुधि न थी और सितार के बिना संसार में उसके लिए और कुछ न था। आज उसने वह बजाया, जो कभी न बजाया था । यह सितार की बाज़ी न थी, जीवन और मृत्यु की बाज़ी थी। आज तक उसने अनाड़ी देखे थे। आज उसके सामने एक उस्ताद बैठा था। कितना ऊँचा ! कितना गहरा ! कितना महान ! आज वह अपनी पूरी कला दिखा देना चाहता था।

बहुत समय बीत गया। सितार बजता रहा। अंगुलियाँ दुखने लगीं। मगर लोगों ने आज तानसेन को पसंद न किया। सूर्य और जुगनू का मुकाबला ही क्या? इससे पहले तक उन्होंने जुगनू देखे थे, परंतु आज उन्होंने सूर्य देख लिया था। बहुत चेष्टा करने पर भी जब कोई हिरन न आया, तो तानसेन की आँखों के सामने मौत नाचने लगी। देह पसीना-पसीना हो गई थी। लज्जा ने मुखमंडल लाल कर दिया था। आखिर खिसियाना होकर बोला, "वे हिरन अचानक इधर आ निकले थे, राग की तासीर से न आए थे। हिम्मत है, तो अब दोबारा बुलाओ!' "

बैजू बावरा मुसकराया और धीरे से बोला, " बहुत अच्छा! "

यह कहकर उसने फिर सितार पकड़ लिया। एक बार फिर संगीत-लहरी वायुमंडल में लहराने लगी। फिर सुनने वाले संगीत सागर की तरंगों में डूबने लगे। हिरन बैजू बावरा के पास फिर आए। वही हिरन, जिनकी गरदन में फूल-मालाएँ पड़ी हुई थीं और जो राग की सुरीली ध्वनि के जादू से बुलाए गए थे। बैजू बावरा ने फूल-मालाएँ उतार लीं और हिरन कूदते हुए जिधर से आए थे, उधर को चले गए।


अकबर का तानसेन के साथ अगाध प्रेम था। उसकी मृत्यु निकट देखी, तो उनका कंठ भर आया, परंतु प्रतिज्ञा हो चुकी थी। वे विवश होकर उठे और संक्षेप में निर्णय सुना दिया, "बैजू बावरा जीत गया। तानसेन हार गया। अब तानसेन के प्राण बैजू बावरा के हाथों में है।" तानसेन काँपता हुआ आगे बढ़ा। वह जिसने अपने जीवन में किसी को मृत्यु के घाट उतारते समय दया न की थी, इस समय दया के लिए गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ाकर प्रार्थनाएँ कर रहा था।

बैजू बावरा ने कहा, " मुझे आपके प्राण लेने की चाह नहीं। आप इस निष्ठुर नियम को उड़वा दें कि जो कोई आगरा की सीमाओं के अंदर गाए, अगर तानसेन के जोड़ का न हो, तो मरवा दिया जाए।"

अकबर ने अधीर होकर कहा, "यह नियम अभी, इसी क्षण से उड़ा दिया जाता है। "

तानसेन बैजू बावरा के चरणों पर गिर गया और दीनता से कहने लगा, “मैं यह उपकार जीवन भर न भूलूँगा।" बैजू बावरा ने उत्तर दिया, "बारह बरस पहले की बात है, आपने एक बच्चे की जान बख्शी थी। आज उस बच्चे ने आपकी जान बख्शी है। "

तानसेन हैरान होकर देखने लगा। फिर थोड़ी देर बाद उसे एक पुरानी, भूली हुई धुंधली सी बात याद आ गई।


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